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महामारियां हमारी नियति क्यो बनती जा रही है ?
महामारियां हमारी नियति क्यो बनती जा रही है ?
संतोष पांडेय
मड़ियाहूं लाइव
कुत्ते ,बिल्ली , बिधवा, संत एवं भूखे प्राणी का विलाप कभी खाली नही जाता । हमारी परम्पराए अनादि काल से इस बात की साक्षी रही है कि निरीह ईश्वर के बंदों का दर्द अकाल लाता है । कितनी अजीब बात है कि विगत चार ,पांच वर्षों में हमारे समाज को तदनंन्तर कही सूखा तो कही बाढ़, किसी प्रदेश में आपदा तो किसी मे मानव जनित या प्राकृतिक विपदाओं का सामना करना पड़ रहा है ;लेकिन हमारे बुद्धि पर माया की ऐसी पट्टी बंधी है कि हमे कुछ भी नही सूझता सिवाय इस भ्रम के हम अनंतकाल तक जीवित रहेंगे , अतः इतना बटोरने में लगे है कि हमारी सात पुस्तों को कुछ न करना पड़े।
मेरा निजी अनुभव है ,जब हम ज्यादा पाते है तो किसी न किसी का हक़ मारते है ।किसी गरीब ,साधनहीन के बच्चे के भूख से हम अपने बच्चे के लिए बैभव खरीदते है ;पर ये बताइये क्या किसी का दर्द आपको आराम से रहने देगा?, शायद कभी नही । मेरा मानना है कि संघर्ष सबके हिस्से में आना चाहिए उससे ही मनुष्य सही मायने में मनुष्य बनता है अन्यथा उसको तो इस बात का भी पता नही चलता कि आलू फैक्ट्री में बनता है कि किसान के पसीने से। मित्रो पुरानी कहावत है कि “पूत कपूत तो का धन संचय, पूत सपूत तो का धन संचय” । यदि आप ने अपने संतति को अच्छी शिक्षा ,दीक्षा दी है तो वो आपको स्वर्गानुभूति करवा देगा और कही आपने उसको दौलत के ज़खीरे का मालिक बना दिया और उसे मानव मूल्यों ,परम्पराओ से काट दिया तो शायद आपका अंतिम घर आधुनिक बृद्धाश्रम होगा जहां आप अपनी नियति को कोस रहे होंगे ।
हमारे गॉवो में अब जोगी ,सन्यासी , भिखमंगे नही आते !क्या आपने ये गौर किया है ? ऐसा क्यों है ? बड़ा ही प्यारा सा उत्तर है —पहले हमारे पास थोड़ा ही हुआ करता था, पर हम बाँटकर खाना जानते थे ,सुखी थे ।आज सब कुछ है ,अकेले खाते है ,पेट तो भर जाता है पर आत्मा भूखी रह जाती है ।अतः आज का मानव जो खुद भूखा है वो क्या किसी जोगी ,सन्यासी ,भूखे को खिलायेगा । अतः सभी भोलेे साधनहीन नदारद हो गए । मित्रो प्रकृति पोषक है ,हमारे अनगिनत गलतियो को अब तक माफ कर चुकी है पर अब हमारे कृत्य शायद उस क्षमा सीमा को लांघ चुके है, अतः अब सावधान होने का समय है नही तो जिस देवी ने डायनासोर जैसे भीमकाय जानवरो को समाप्त कर डाला उसके सामने मनुष्य जैसे तुच्छ प्राणी कितने समय टिकेंगे ।
( स्वदेशी चेतना मंच की पट से)