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कान्वेंट शिक्षा :हिंदी और हिन्दुस्तान का भविष्य संतोष पांडेय :स्वदेशी चेतना मंच

***कान्वेंट शिक्षा :हिंदी और हिन्दुस्तान का भविष्य**
संतोष पांडेय :स्वदेशी चेतना मंच

सख्स मरते है ,सख्सियत नही । उनकी श्री हमे
निरंतर राह दिखाती है । मेरे गाँव मे एक बुजुर्ग थे ,वो कहा करते थे “बेटा ! पहले घर मे दीपक जलाओ, फिर मंदिर में “। आज जब मैं हिंदी के दुर्दशा पर कुछ लिखने कीकोशिश करता हु ,तो दादा जी के कहे वाक्य
अनायास ही याद आते है ।
“दूर के ढोल सुहावने होते है “। कहते है -अपना बच्चा और दूसरे की औरत बड़े अज़ीज़ लगते है । अंग्रेजी के प्रति हमारा प्रेम कुछ ऐसा है ।आज जब हिंदी के साथ अपने ही मिट्टी में बेगाना- सा बर्ताव होता है ,तो मन द्रवित हो जाता है। हमारी शिक्षा पद्धति हमारे ब्यक्तित्व का निर्माण करती है और हमारा ब्यक्तित्व हमारे समाज का चरित्र गढ़ती है । कोई भाषा अच्छी
या बुरी नही होती ,यदि कुछ बुरा है तो किसी भी भाषा
के प्रति अंध श्रद्धा और दूसरी भाषा के प्रति हिकारत भरा नजरिया । गली -गली में खुल रहे कान्वेंट स्कूल ये बताने के लिए काफी है कि हिंदी की तबियत नासाज हो चली है ।
भाषा किसी देश -समाज की रूह होती है । इसकी रवानी में उस देश के संस्कार झलकते है । हमारे देश का नाम हिदुस्तान हिंदी भाषा की वजह से ही पड़ा । और जिस देश की पहचान ही, उसकी भाषा हो, उस पर भाषा के साथ बेगाना रवैया -नमकहरामी है दोस्तो । लार्ड मैकाले द्वारा भारत मे अंग्रेजी भाषा के प्रसार का उद्देश्य भारत मे दोयम दर्जे के नागरिक पैदा करना था । एक ऐसा ब्यक्ति बनाना जो वेश भूषा में तो भारतीय हो पर उसकी आत्मा में अंग्रेजियत कूट -कूट के भरी हो ।
2 फरवरी 1835 को टी. बी. मैकाले द्वारा ब्रिटिश संसद को संबोधित करते हुए प्रसिद्ध भाषण दिया गया , जिसके अंश कुछ इस प्रकार से है ,” मैंने भारत के कोने कोने का भ्रमण किया , मुझे वहां कही कोई भीख मांगता नजर नही आया । कोई भी व्यक्ति चोरी या किसी अपराध में लिप्त नही मिला । यहां के लोगो मे जो उच्च नैतिक मूल्य और आध्यात्मिक ज्ञान है, मैने अन्यत्र कही नही देखा । यहॉ की धरती शस्य श्यामला सबका पेट भरती है । कोई भूखा नही है । सभी घर धन -धान्य से पूर्ण है ।खुशहाली सर्व्यापी है।
अतः जिस देश के नागरिक और समाज ऐसा हो उसको गुलाम बनाना मुश्किल है । मैकाले आगे कहता है -यदि हम भारतीय समाज की रीढ़ ,उसकी शिक्षा व्यवस्था को तोड़ दे ,तो ही! हम इनको गुलाम बना सकते है ।उसका मानना था, यदि किसी देश को गुलाम बनाना है उसके नागरिको सर्प्रथम बौद्धिक गुलाम बना दो । उसकी मौलिक सोच को पंगु कर दो । अतः बिदेशी भाषा को जैसे ही हम भारतीयों पर थोप देंगे वैसे ही इनकी सोच कुंद हो जाएगी , और इस शिक्षा व्यवस्था में पढ़ा नौजवान रंग ,रूप से तो भारतीय ही दिखेगा पर उसकी अभिरुचि और संस्कार में अंग्रेजियत साफ झलकेगी ।
मैकाले कहा करता था कि “किसी जमीन पर नई फसल बोने से पहले उसकी कायदे से जुताई कर देनी चाहिए ।ठीक उसी प्रकार से जब किसी देश को बिना युद्ध पराजित करना हो तो उसकी वैभवशाली विरासत की गाथाओ का समूल विनाश कर दो । जिससे देश के लोगो मे स्वभिमान समाप्त हो जावेगा ,और जिस देश के नागरिक वैचारिक नपुंसक हो जायेगे ,उसको बड़ी सरलता से उजाड़ा जा सकता है ।
भारत मे अंग्रेजी शिक्षा लागू करने से पहले मैकाले ने देश मे प्रचलित शिक्षा व्यवस्था का कायदे से अध्धयन किया और अपने कार्यकाल से पहले शिक्षा के क्षेत्र में सर्वे,जो कि G W litner व थॉमस मुनरो के द्वारा किया गया , उसको पूरी पटुता के साथ संज्ञान में लिया । लिटनर और मुनरो ने तत्कालीन भारत के साक्षरता के बारे एक सर्वे किया ,जिसमें वे अपन प्रतिवेदन देते है कि उस दौर में दक्षिण भारत की साक्षरता 100 प्रतिशत और उत्तर भारत की 85 प्रतिशत थी । तत्कालीन भारत मे कुल 7.5 लाख राजस्व ग्राम थे जिसमे 7.32 लाख गुरुकुल के द्वारा शिक्षा दी जाती थी । गुरुकुलों में कुल 18 विषयो की पढाई अपनी स्थानीय भाषाओ होती थीं । गुरुकुल में गणित ,तकनीकी ज्ञान , कारीगरी और खगोलशास्त्र जैसे आधुनिक विषय पढ़ाये जाते थे ।
कहा जाता है कि दुनिया मे सर्वप्रथम बांध भारत मे कावेरी नदी पर बना ,जिसका काल बारहवीं शताब्दी का है ‘जिसका निर्माण हैदराबाद के किसी गुरुकुल के आचार्य एवं उनके विद्यार्थियों द्वारा किया गया । जिस शिक्षा का कोई सानी नही था उस शिक्षा को अंग्रेजो ने भारतीय शिक्षा अधिनियम लागू करके गैरकानूनी घोषित कर दिया गया । सारे गुरुकुलों को उजाड़ दिया गया ,उनके आचार्यो को मारपीट कर भाग दिया गया और उसी साथ अंत हो गया– हमारे पुरातन ज्ञान का ,हमारी मौलिक अन्वेषण का । हमारी पुरातन शिक्षा ने जहां हमे दुनियावी विकास में चीते की फुर्ती दी थी वही अंग्रेजी शिक्षा ने हमे नकलची बंदर बना दिया । आज हम जब दुनिया मे पहले से बने किसी भी वस्तु अपने स्तर से निर्माण कर लेते है तो मूर्खो की तरह अपनी पीठ थपथपा लेते है । भारतेंदु हरिश्चंद्र अपने एक लेख —भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो ; में लिखते है कि ” जापानी टट्टुओं को जब हाँफते हुए देखता हूं तो भी हमे लाज नही आती है ।विकास की दौड़ में वो भी हमसे तेज दौड़े जा रहे है लेकिन हमारी आंखों पर यदि कम्बख्ती की पट्टी बंधी है तो उसमें किसका दोष ?
किसी भी इंसान ,जानवर की मूल प्रवृत्ति से उसकी पहिचान होती है। और उसी मूल प्रवृत्ति से वह अपने समाज मे इज्जत पता है ।जैसे ही उसने उस प्रवृत्ति का त्याग किया उसका हस्ती समाप्त हो जाती है ।जैसे साँप का मूल गुण उसका विष है ।विषहीन साँप न तो अपने कुल में और नही समाज मे कही भी इज्जत पाता है । हमारा आत्मगौरव हमारी भाषा है । हमारी पहिचान हिंदी से है; हिंदी के हम हुए नही और अंग्रेजी ने हमे अपनाया नही । हमारी स्थिति त्रिशंकु जैसी हो गयी, न तो नर में रहे और न ही नारी बने । हमारे शास्त्र कहते है दुनिया मे कोई उसका सम्मान नही करता जो स्वयं का सम्मान न करता हो । अपनी माता का सम्मान किया नही । गैर माता तो मौसी ही होगी ना?। जब हिंदी को मातृवत सम्मान दिया नही तो अंग्रेजी क्या खाक आएगी ।
बिभिन्न खोजो के द्वारा ये सिद्ध किया जा चुका है कि अपनी भाषा मे प्राप्त ज्ञान सर्वश्रेष्ठ होता है ।ऐसा ज्ञान ज्यादा व्यावहारिक और मौलिक होता है ,जिसमे बिद्यार्थी अपेक्षाकृत ज्यादा चिंतनशील और समाजोपयोगी होते है । लेकिन कुछ तो है कि हमे शर्म नही आती । आज स्वतंत्रता के इतने वर्षो बाद भी हमारे हुक्मरानों ने अपनी भाषा के विकास और उसके सम्मान के लिए कुछ भी नही किया ।जहां भी देखो अंग्रेजी की शान काबिज है और माँ सरस्वती के वीना के सुर में प्रवाहित हिंदी सिसकती है ।
आधुनिक कॉन्वेंट शिक्षा प्रणाली में हम अपने नौनिहालो को समाज–उपयोगी नही ,समाज के लिए बोझ बना रहे है । जिन बच्चो के अंदर शिक्षा के लिए प्रेम पैदा होना चाहिए था, वो नौनिहाल अग्रेजी की पहेली को सुलझा नही पाते ,अंतः शिक्षा से उनका मोह भंग होने लगता है ।
आधुनिक शिक्षा पद्धति ने जीवन को एक दौड़ बना दिया । इसने बच्चो का चरित्र निर्माण किया ही नही ।अंग्रेजी शिक्षा ने ब्यवसायिक रूप से सक्षम तो बना दिया पर व्यावहारिक रूप से अक्षम कर दिया । हम बिना चरित्र के विभिन्न पदों पर काबिज तो हो गए पर निजी सुख सुविधा को प्राथमिकता देते हुए अमानुष होते चले गए । सहजीविता का भाव : सर्वे भवन्तु सुखिनः कही दूर छोड़ आये जो कि हमारे संस्कारो में था । जो कि हमारी भाषाई विरासत में था ।
भाषा किसी मिट्टी की सुगंध होती है ।हिंदी हमारे एहसासों में स्वच्छंद विचरण करती है । हिंदी हमारे संबंधों की मिठास है जो मजा काका और ताऊ में है वो अंकल में नही । हिंदी हमारे जज्बातो की भाषा है जब हम हिंदुस्तानी प्रेम या घृणा का प्रदर्शन करते है उसकी भी अपनी एक नज़ाकत है । सॉरी कहना यहां अनुचित माना जाता है ।
प्रिय पाठक बंधुओ हिंदुस्तानी तहजीब को यदि सुरक्षित रखना है तो हिंदी को फलने फूलने का पुनः मौका देना होगा और ये तभी संभव होगा जब विद्यालयो में अंग्रेजी एक भाषा की तरह पढ़ाई जाय न कि माध्यम की तरह । और हमे प्राण लेना होगा कि हमारे बच्चे सबसे पहले इंसान बने बाद में कुछ और !
बस्तियां जब जलती है तो कोई घर सुरक्षित होने का दावा नही कर सकता । बड़े -बड़े कान्वेंट शैक्षिक संस्थानों में बच्चों द्वारा किये गए कुकृत्य ये बताने के लिए काफी है कि हम अपने बच्चों को ऐसे गढ़ने के लिए इन महंगे स्कूलों में तो नही भेज रहे जो अपने ही माँ- बाप को उनके आखिरी समय मे बृद्धाश्रम भेजते है ।
अंग्रेजी रोबोट की भाषा है और हिंदी हृदय के तरन्नुम की । हम भारतीयों को तो मुरली की धुन पसंद है न कि गिटार की कर्कश ध्वनि। प्रेम जानवर भी समझ लेते है। हिंदुस्तान का मुस्तकबिल हिंदी के सम्मान पर टिका है । अपने घर मे दीपक जलाने के बाद ही मंदिर में जलाया जाता है ।यदि हम अपने माँ की ही इज्जत न कर सके तो किसी और की क्या करेंगे । खुद की पहिचान कराइये अन्यथा भीड़ में विलीन होने का खतरा सदैव रहता है ।
याद रखिये –
एक बार शिवाजी से किसी ने पूछा कि वे इतने वीर कैसे हुए ।उन्होंने जबाब दिया —“शिवाजी आज शिवाजी नही होते यदि उनकी माँ जीजाबाई नही होती”।



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