लेखक के कलम से

अब के सजन सावन में

*****अब के सजन सावन में *****
(संतोष पांडेय -स्वदेशी चेतना मंच)
बात कुछ पुरानी हो चली है । वर्ष2005 , आषाढ़ का महीना था ,दैनिक अखबार के लखनऊ संस्करण में सावन पर एक लेख छपा था । इस लेख में लिखने वाले ने बरखा रानी के आगमन को गांव और शहर के नजरिये से देखा और इसका बड़ा ही मनोरम वर्णन किया । लेखक लिखता है कि कुछ शहरी कहते है कि जब बड़े _बड़े होर्डिंग पर ये लिख कर प्रचारित होने लगे कि –अल्फा के चप्पल पहनो ,सावन आया है । और कोई मनचला शहरी यहां तक कहने लगे कि “जब गटर से शिट उबलकर बाहर आने लगे तो समझ लेना कि सावन आ गया है । ये सावन का परदेसी स्वरूप है ।दूसरी तरफ गाँव में -जब जेठ की तपन मे तपकर मां वसुधा अपने प्रियतम मेघ का आलिंगन कर अपने आँचल को मखमली स्वरूप दे -दे, तो लोग कहने लगते है कि मनभावन सावन ने दस्तक दे दी है ।कितना बड़ा वैचारिक अंतर, एक तरफ शहरियो के लिए सावन कीचड़ से सना हुआ ऐसा महीना जो आवागमन में बाधक है, वही गाँव मे सावन नवविवाहिता के इन्तेजार का ऐसा माह जिसका वह बेसब्री से राह निहारती है कि उसके पीहर से कोई बिदाई का संदेश लेकरआता होगा । बड़ी तल्लीनता से वो गुनगुनाती है —- मैया मोरी बाबुल को भेजो री कि सावन आया ,सावन आया —— ।सावन मास का बड़ा महत्व है । इस महीने से समाज के हर वर्ग का अलग अलग भावनात्मक जुड़ाव है । जहां विरहिणी जिसका पति परदेश में है, नौकरी से छुट्टी न मिलने पर वह गाँव नही आ पाता है उसके लिए बारिश की बूंदे गोली सम लगती है और वह गाती है —
**रिमझिम गिरे सावन ,सुलग सुलग जाए मन
भीगे आज इस मौसम में ,लगी कैसी ये अगन ——
नवविवाहिता जिनका पति नौकरी के खातिर परदेश गया है , वो अपने पति को फ़ोन करके उलाहना देती है कि तुम्हारी दो टके की नौकरी नें मेरे लाखो के सावन को बर्बाद करके रख दिया है ।
*एक प्रेमी और उसके प्रेयसी के लिए सावन की बूंदों के बीच बिताया वक़्त ताउम्र याद रहता है । सावन की घटाएं जो मिलन के वक़्त दोनों को नैसर्गिक आनंद देती है वही घटा बिछोह में असीम दर्द का अनुभव कराती है । और वो बिछोही गीत गाती है– अब के न सावन बरसे ,अब के बरस तो बरसी है अखियां —-
और एक तरफ वो नवयौवना है जिसके पति को उससे दूर जाने में कुछ दिन ही शेष है । वह ललना अपने प्रिय के साथ बिताए एक एक क्षण को अपनी हृदय में कैद कर लेना चाहती है । वह चाहती है कि समय ठहर सा जाय जिससे उसका महबूब उसके आखियो के सामने ही रहे , वह घटाओ से कहती है –
उड़ते पवन के संग चलूंगी ,मैं तो तिहारे संग चलूंगी
रुक जा ऐ घटा ,रुक जा ऐ बहार—–
सावन को ननद भौजाई का भी मौसम कहा जाता है । जब नवविवाहिता प्रथम बार अपने पीहर आती है तब भौजाई का नंनद को रिझाना और रात्रि पहर में कजरी के गीतों में सावन जीवंत हो उठता है ।दादुर के टर्र -टर्र एवं पावस की रात्रि में रेवा की सनसनाती आवाज वातावरण के मूक माहौल को अशांत करती है उस पर गाँव के महिलाओ एवं बालिकाओ का समवेत कजली का गायन फिज़ा में नूर घोलता हैं। लेकिन माफ करियेगा ये उन दिनों की बात है जब गाँव के लोगो को शहरी ;गंवार कहते थे ।जब गाँव मे उसकी परंपरा एवं संस्कार जीवित होते थे ,लोगो के पास समय होता था ,प्रकृति के रूप को निहारने के लिए ,घटाओं का तहेदिल से शुक्रिया करने के लिए, जिसकी कृपा से किसान अपने खेतों में मोती उपजाते थे। अब बाँगो में झूले नही पड़ते अब उन रस्सियों का प्रयोग सदा के लिए झूल जाने के लिए होता है । आज लोग कहते है जिंदगी बड़ी फ़ास्ट हो गयी है ।मुझे ये बताइये हम किसे पीछे छोड़ने में लगे है ,खुद को या अपने वज़ूद को । लोगो की जीवन शैली ने उनके जीवन को बदरंग कर दिया।सबकुछ होने पर भी पता नही किस चीज की प्यास सदैव रहती है । **मोबाइल ने जीवन को एकाकी और नरक बना दिया । अफीम की लत से तो एक आदमी बर्बाद होता है पर मोबाइल की लत ने समाज के प्रेम का भक्षण कर डाला ***।हमने लोगो से बात करना बंद कर दिया । बुजुर्गो से कोई बात करने वाला नही है । उनकी पथराई सी आंखे किसी के प्रेम के दो बोलो की बाट जोहती है । शायद इसीलिए सावन में मेघ अब ऐसे नही बरसते जैसे बचपन के दिनों में बरसा करते थे ।अब सावन बरसता नही सिसकता है ।अब बिरहन कोई रही नही ।शादी होते ही परिवार की तिलांजलि देती महिलाएं पति का परछाई की तरह पीछा करती है और हमारी शिक्षा पद्धति ने हमे रूखा बना दिया ।”” “ननद ने दीदी का अवतार ले लिया और भौजाई ने भाभी का रूप धर लिया तो कैसा सावन और किसका सावन ।””” सावन में तो मेह बरसता हैं और जहां प्रेम नही ,वहां सावन कहाँ*
मैं थोड़ा कड़वा लिखता हूं पर दवा सदैव कड़वी होती है । अतः इस बार जब सावन बरसे तो अखियाँ नही अखियों से प्रेम की बारिस हो और ये गीत गुनगुनाते रहना —- मोहब्बत बरसा देना तू सावन आया है । (devoted to all evergreen lyricist of indian cinema ), ( please share and comment )

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