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किसान का आशियाना बारिस की बूंदों में टपकता है परंतु वो बारिस की दुआ करता है
** किसानों की समस्याएं और हमारे नीति नियंता**
संतोष पांडेय ,स्वदेशी चेतना मंच
कुछ बरस पहले की बात है । मैंने अपने ज्ञानभूमि इलाहाबाद के लिए, जौनपुर – इलहाबाद सवारी गाड़ी में मड़ियाहूं स्टेशन पर सवार हुआ । सावन का महीना था ,प्रकृति अपने पूरे यौवन में थी । जिधर नजर पहुच रही थी ,उधर आंखों को शीतल करने वाली हरियाली आंखों से उतरकर मन को लुभा रही थी । घटाओं से धीरे -धीरे बारिश की बूंदे जब हवाओं के साथ स्पंदन करती हुई जब मक्के के पौधों पर पड़ती तो एक क्षण ऐसा लगा कि ट्रेन से उतरकर घटाओं का आलिंगन कर लूं । पर जाना आवश्यक था इसलिए घटाओं को निहारने के लिए बगल की एकाकी सीट ली। कुछ समय तक ,मेरा खयाल है ;मडियाहू से जंघई तक मैं मकई की जीर और धान के खेतों में पसरे किसान की मेहनत को पूरी शिद्दत से महसूस कर रहा था । और उसी के साथ इन ख्यालो में खोया था कि धरती मैया इस वर्ष किसानों को खुश कर देगी । और कृषि के कुछ वर्ष ऐसे आगे भी जारी भी रहे ।
खुशी के कुछ बरस ऐसे ही बीतते गए ।किसान धरती माँ को बीज अर्पण करता , और बीज प्रसूता किसान को उसके मेहनत का अंश दे दिया करती थी । फिर आया साल 2017 , जैसे पुराने जमाने मे डकैतों के खौफ से बस्तियां वीरान हो जाती थी ,ठीक उसी प्रकार सांडो के आतंक ने शस्य – श्यामला जमीन को बीहड़ जैसा बना दिया । किसान किसी तरह से अपने बच्चो के पेट जमीन के छोटे से हिस्से से भरा करता था ,आवारा पशुओं ने किसानों की जिंदगी जहन्नुम बना दी । जिन खेतो में सावन में मकई और अन्य फसलें रौब झाड़ती थी उन खेतों में पशुओं के तांडव ने कर्फ़्यू जैसा निरवता पसार दी ।
ये बातें आज इतने बरसों बाद इसलिए याद आ रही है, क्योंकि स्टेशन वही है ; रास्ते भी वही है ; घटाएं भी है पर मकई का झुरमुट नदारद है। आज किसानों की हालत मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास “”पूस की रात “” के किसान हल्कू जैसे हो गयी है जो महाजन के कर्ज के बोझ तले ऐसा दबा है कि खेती छोड़कर अन्य उद्यम करने की सोच रहा है ।
एक रिपोर्ट के अनुसार अब तक 77 लाख किसान , खेती – किसानी छोड़कर अन्य व्यवसाय करने लगे है । किसान के खेत उसके प्राण तत्व है । खेत यदि किसान की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति न भी करे केवल उसके बच्चों की भूख शांत कर दे ,तब भी वह किसान खेत मे हल चलाना नही छोड़ता । लेकिन जब किसान अपने बच्चों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति अपने अथक मेहनत से भी नही कर पाता ,तो उसकी शक्ति और इच्छा दोनों जवाब दे जाती है और उसका मन खेती से उचटने लगता है ।
कष्ट तो किसानों की नियति है । फसल अच्छी हुई , तो उचित कीमत नही मिलती ;और यदि बसुधा रूठी तो किसान के भविष्य कि सारी योजनाओ पर पानी फिरता ही है अंत में उसके परिवार पर भूख; गिद्ध की तरह नजर जमाने लगती है ।
राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण आफिस के आंकड़े बताते है कि अब तक 170000 किसान खेती असफल होने के कारण आत्महत्या कर चुके है । वर्ष 1992 ,स्थान महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र ;काली मिट्टी जो कपास के अच्छी उपज के लिए जाती है ; कृषि की विफलता ने कृषक आत्महत्या का ऐसा कला दौर प्रारम्भ किया कि आगे के वर्षो में एक चलन सा बन गया । भूख का दंश उसके ऊपर साहूकार के कर्ज के दबाव ने किसानों को ऐसे नाउम्मीदी के दलदल में धकेल दिया कि इससे बाहर आने की कोई सूरत नही बची , सिवाय मृत्यु के । वर्ष 1992 में 10000 किसानों ने अपने प्राणों का अंत किया । और आगे के सालों में प्राण देने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा ।साल 2009 कृषि के लिए सबसे मनहूस साबित हुआ जिसमें 17000 किसानों ने आत्महत्या की ।
कोई मनुष्य आत्महंता तब बनता है जब उसे जीने की कोई उम्मीद न दिखे । किसान , वर्ष दर वर्ष मरते रहे पर न तो हमारे राजनेता और न ही किसानों के हितैषी हमारे नीति नियंता आईएएस ने किसानों की कोई सुधि ली । आज इतने आकड़े देने की पीछे की मंशा सिर्फ एक है कि किसानो के मरने सिलसिला अनवरत जारी है और जो आग विदर्भ क्षेत्र से फैलकर पूरे महाराष्ट्र फिर कर्नाटक ,आंध्र प्रदेश , छत्तीसगढ़ ,मध्य प्रदेश में तबाही मचाई वो कही उत्तर प्रदेश की नियति न बन जाय । किसानों की कुछ समस्याएं तो पहले से विद्यमान थी उस पर आवारा पशुओं की समस्या किसी भयावह त्रासदी से कम नही है।
कृषि उत्पादन की लागत क्या कम थी कि पशुओं का आतंक एक न सुलझने वाली पहेली बन गयी । अब किसान के पास दो विकल्प थे – पहला कि अपने सारे खेतों को कटीले तारो से घेर दे । दूसरा खेतो की बुआई ईश्वर के भरोसे करे ।
उत्तर प्रदेश में जनसंख्या अधिक होने से खेती पीढ़ी दर पीढ़ी बंटती चली गयी । सीमांत किसान होने की वजह से किसी के पास इतना पैसा नही है कि किसान अपने कृषि लागत में कोई और कारक बढ़ा सकें । अतः पहली योजना सिर्फ ऐसे किसानों के लिए है जो ज्यादा सम्पन्न है । मध्यम वर्गीय सीमांत किसान तो भगवत कृपा से ही अन्न बोता है । लेकिन यहां पर उसको ईश्वर कृपा भी प्राप्त नही होती और किसान की मेहनत दबंग पशु चाट जाते है। चार्ल्स डार्विन का एक नियम है – उत्तरजीविता का सिद्धांत( survival of fittest) . यह नियम कहता है उसी को जीने का हक़ है जो इस दुनिया मे उपयोगी है और अनुपयोगी का प्रकृति वरण कर लेती है । ये सिद्धान्त पूरी तरह से आवारा पशुओं पर लागू नही होता परंतु कमोबेश यही सत्य है । मनुष्य के जीवन की कीमत पर सांडो को बचाना कहाँ तक तर्कसंगत है । बर्तमान निर्मोही सरकार जो गरीबो को तुच्छ समझती हो। पढ़े लिखे नौजवान नौकरी के लिए तरसते हो । मनुष्य के जीवन मे नाउम्मीदी के सिवाय कुछ न हो ऐसे राजनेता यदि पशु क्रूरता की आड़ में अपनी नाकामी छिपाते है तो उनसे जितनी जल्दी हो छुटकारा पाने में ही समग्र समाज की भलाई है । हमारे समाज के लिए मनुष्य और पशु दोनों महत्वपूर्ण है पर किसी के कीमत पर कोई जीये तो वो दोनों के लिए नुकसानदेय है । पशुओं की सुरक्षा के लिए पेटा( PETA) को और जवाबदेह बनाना मौके जी नजाकत है । सरकारी गौशाला में पशुओ की जो हालत है वो बताने की जरूरत नही है । सरकारी मशीनरी भ्रस्टाचार में ऐसी लिप्त है कि गौशालाओ में पशुओं को यदि पानी भी नसीब हो जाय तो बड़ी बात है । पशु तड़प तड़प कर मर जाने को विवश है ।ये कौन सी सुरक्षा है ,दयाभाव है , जिसमे जीने से बढ़िया; मरना है । सरकार यदि पशु हितैषी होती तो वो पशुओं को छोड़ने वालो पर कठिन कार्यवाही करती। हमारे राज्य में बड़े बड़े जंगल है वहां पर पशुओं का स्थानांतरण करती जिससे पशु गरिमा मय जीवन या मृत्यु पाते । लेकिन अंधेर नगरी ,चौपट राजा वाली स्थिति बनी है । किसान पीड़ा कहे तो किससे ।
किसान हमारे अन्नदाता है ।दुनिया कितना भी विकास कर ले ,पैसा मनुष्य की क्षुधा तृप्ति नही कर सकता । विज्ञान चाहे कितनी भी तरक्की कर ले भूख की कोई दवा नही बना पायेगा । हमारे किसान हमारी राष्ट्रीय संपत्ति है । हमारे नुमाइंदों व इनके नीति नियंताओ को किसान की पीड़ा और लाचारी को महसूस करना होगा जिससे किसान खेती करना जारी रखे नही तो बीहड़ों में भटकती भूख रोज किसी निरीह को अपना निवाला बनाती रहेगी ।
याद रखियेगा*** किसान का आशियाना बारिस की बूंदों में टपकता है परंतु वो बारिस की दुआ करता है ।”****